पितृ पक्ष में श्राद्ध -13 से 28 सितंबर पितृ पक्ष

पितृ पक्ष में श्राद्ध -13 से 28 सितंबर पितृ पक्ष

श्राद्ध पक्ष में गया, हरिद्वार, उज्जैन, इलाहाबाद जैसे धार्मिक स्थलों पर किया जाता है पिंडदान

पितरों के लिए पूजा-पाठ करने का पर्व पितृ पक्ष शुक्रवार, 13 सितंबर से शुरू हो रहा है। इस साल पितृ पक्ष की तिथियों को लेकर पंचांग भेद हैं। कुछ पंचांग के अनुसार 14 सितंबर से पितृ पक्ष शुरू होगा। पितृ पक्ष का समापन 28 सितंबर को होगा। हर साल आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में पितृ पक्ष रहता है। इन दिनों में पितरों के लिए श्राद्ध और तर्पण आदि शुभ कर्म किए जाते हैं।

पितृ पक्ष से जुड़ी धार्मिक मान्यता
मान्यता है कि पितृ पक्ष में पितर देवता पृथ्वी लोक का भ्रमण करते हैं। इन दिनों में गया, हरिद्वार, उज्जैन, इलाहाबाद जैसे धार्मिक स्थलों पर पिंडदान किया जाता है। इन धर्म स्थलों पर तर्पण करने से पितृ देवता तृप्त होते हैं। दिवंगत पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए तर्पण किया जाता है। श्राद्ध वो कर्म है, जिससे पितरों को तृप्ति के लिए भोजन दिया जाता है। पिंडदान और तर्पण करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है। जिस तिथि पर परिवार के व्यक्ति की मृत्यु हुई है, उसी तिथि पर उस व्यक्ति के लिए श्राद्ध कर्म करना चाहिए।

कैसे कर सकते हैं श्राद्ध
पितृ पक्ष में रोज सुबह जल्दी उठना चाहिए। स्नान के बाद श्राद्ध कर्म के लिए भोजन बनाना चाहिए। ध्यान रखें इन दिनों में लहसुन और प्याज का सेवन नहीं करना चाहिए। गाय के गोबर से बने कंडे जलाकर उस पर धूप देना चाहिए। दीपक जलाकर पितर देवता को याद करना चाहिए। अगर संभव हो सके तो किसी ब्राह्मण को भोजन कराएं। दान-दक्षिणा दें। पितरों से अनजाने में हुई भूल के लिए क्षमा याचना करें।

इन बातों का भी रखें ध्यान
श्राद्ध पक्ष में घर में शांति बनाए रखनी चाहिए। घर में क्लेश न करें, प्रेम से रहें। अधार्मिक कामों से बचें। नशे का सेवन न करें। घर में गंदगी न रखें। आलस्य से बचें और सभी का सम्मान करें।

श्राद्ध तर्पण पूजा के विषय में विस्तृत जानकारी

महामृत्युंजय मंत्र का महत्व

महामृत्युंजय मंत्र का महत्व

महामृत्युंजय मंत्र के 33 अक्षर हैं जो महर्षि वशिष्ठ के अनुसार 33 कोटि (प्रकार) देवताओं के द्योतक हैं

उन तैंतीस देवताओं में 8 वसु 11 रुद्र और 12 आदित्यठ 1 प्रजापति तथा 1 षटकार हैं। इन तैंतीस कोटि देवताओं की सम्पूर्ण शक्तियाँ महामृत्युंजय मंत्र से निहीत होती है।

1) “मृत्यु को जीतने वाला महान मंत्र” जिसे त्रयंबकम मंत्र भी कहा जाता है, ऋग्वेद का एक श्लोक है।

2) यह त्रयंबक “त्रिनेत्रों वाला”, रुद्र का विशेषण (जिसे बाद में शिव के साथ जोड़ा गया)को संबोधित है। यह श्लोक यजुर्वेद में भी आता है।

3) गायत्री मंत्र के साथ यह समकालीन हिंदू धर्म का सबसे व्यापक रूप से जाना जाने वाला मंत्र है।

4) शिव को मृत्युंजय के रूप में समर्पित महान मंत्र ऋग्वेद में पाया जाता है।

5) इसे मृत्यु पर विजय पाने वाला महा मृत्युंजय मंत्र कहा जाता है।

इस मंत्र के कई नाम और रूप हैं।

1) इसे शिव के उग्र पहलू की ओर संकेत करते हुए रुद्र मंत्र कहा जाता है;

2) शिव के तीन आँखों की ओर इशारा करते हुए त्रयंबकम मंत्र और इसे कभी कभी मृत-संजीवनी

3) मंत्र के रूप में जाना जाता है क्योंकि यह कठोर तपस्या पूरी करने के बाद पुरातन ऋषि शुक्र को प्रदान की गई “जीवन बहाल” करने वाली विद्या का एक घटक है।

ऋषि-मुनियों ने महा मृत्युंजय मंत्र को वेद का ह्रदय कहा है। चिंतन और ध्यान के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले अनेक मंत्रों में गायत्री मंत्र के साथ इस मंत्र का सर्वोच्च स्थान है।

महा मृत्युंजय मंत्र का अक्षरशः अर्थ

त्रयंबकम = त्रि-नेत्रों वाला (कर्मकारक)
यजामहे = हम पूजते हैं,सम्मान करते हैं,हमारे श्रद्देय
सुगंधिम= मीठी महक वाला, सुगंधित (कर्मकारक)
पुष्टि = एक सुपोषित स्थिति, फलने-फूलने वाली,समृद्ध जीवन की परिपूर्णता
वर्धनम = वह जो पोषण करता है,शक्ति देता है, (स्वास्थ्य,धन,सुख में) वृद्धिकारक;जो हर्षित करता है,आनन्दित करता है और स्वास्थ्य प्रदान करता है,
एक अच्छा माली
उर्वारुकम= ककड़ी (कर्मकारक)
इव= जैसे,इस तरह
बंधना= तना (लौकी का); (“तने से” पंचम विभक्ति – वास्तव में समाप्ति द से अधिक लंबी है जो संधि के माध्यम से न/अनुस्वार में परिवर्तित होती है)
मृत्युर = मृत्यु से
मुक्षिया = हमें स्वतंत्र करें, मुक्ति दें
मा= न
अमृतात= अमरता, मोक्

सरल अनुवाद
हम त्रि-नेत्रीय वास्तविकता का चिंतन करते हैं जो जीवन की मधुर परिपूर्णता को पोषित करता है और वृद्धि करता है। ककड़ी की तरह हम इसके तने से अलग (“मुक्त”) हों,अमरत्व से नहीं बल्कि मृत्यु से हों।

||महा मृत्‍युंजय मंत्र ||

ॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यम्‍बकं
यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव
बन्‍धनान् मृत्‍योर्मुक्षीय मामृतात्
ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ !!

महा मृत्‍युंजय मंत्र का अर्थ :-

”समस्‍त संसार के पालनहार,तीन नेत्र वाले शिव की हम अराधना करते हैं। विश्‍व में सुरभि फैलाने वाले भगवान शिव मृत्‍यु न कि मोक्ष से हमें मुक्ति दिलाएं।”महामृत्युंजय मंत्र के वर्णो (अक्षरों) का अर्थ महामृत्युंघजय मंत्र के वर्ण पद वाक्यक चरण आधी ऋचा और सम्पुतर्ण ऋचा-इन छ: अंगों के अलग-अलग अभिप्राय हैं।

ओम त्र्यंबकम् मंत्र के 33 अक्षर हैं जो महर्षि वशिष्ठर के अनुसार 33 कोटि(प्रकार) देवताओं के घोतक हैं।

उन तैंतीस देवताओं में 8 वसु 11 रुद्र और 12 आदित्यठ 1 प्रजापति तथा 1 षटकार हैं। इन तैंतीस कोटि देवताओं की सम्पूर्ण शक्तियाँ महामृत्युंजय मंत्र से निहीत होती है जिससे महा महामृत्युंजय का पाठ करने वाला प्राणी दीर्घायु तो प्राप्त करता ही हैं। साथ ही वह नीरोग,ऐश्व‍र्य युक्ता धनवान भी होता है।

महामृत्युंरजय का पाठ करने वाला प्राणी हर दृष्टि से सुखी एवम समृध्दिशाली होता है। भगवान शिव की अमृतमययी कृपा उस निरन्तंर बरसती रहती है।

त्रि – ध्रववसु प्राण का घोतक है जो सिर में
स्थित है।
यम – अध्ववरसु प्राण का घोतक है,जो मुख
में स्थित है।
ब – सोम वसु शक्ति का घोतक है,जो दक्षिण
कर्ण में स्थित है।
कम – जल वसु देवता का घोतक है,जो वाम
कर्ण में स्थित है।
य – वायु वसु का घोतक है,जो दक्षिण बाहु
में स्थित है।
जा अग्नि वसु का घोतक है,जो बाम बाहु
में स्थित है।
म – प्रत्युवष वसु शक्ति का घोतक है,
जो दक्षिण बाहु के मध्य में स्थित है।
हे – प्रयास वसु मणिबन्धत में स्थित है।
सु वीरभद्र रुद्र प्राण का बोधक है।
दक्षिण हस्त के अंगुलि के मुल में स्थित है।
ग शुम्भ् रुद्र का घोतक है दक्षिणहस्त्
अंगुलि के अग्र भाग में स्थित है।
न्धिम् गिरीश रुद्र शक्ति का मुल घोतक है।
बायें हाथ के मूल में स्थित है।
पु अजैक पात रुद्र शक्ति का घोतक है।
बाम हस्तह के मध्य भाग में स्थित है।
ष्टि – अहर्बुध्य्त् रुद्र का घोतक है,बाम हस्त
के मणिबन्धा में स्थित है।
व – पिनाकी रुद्र प्राण का घोतक है।
बायें हाथ की अंगुलि के मुल में स्थित है।
र्ध – भवानीश्वपर रुद्र का घोतक है,बाम हस्त
अंगुलि के अग्र भाग में स्थित है।
नम् – कपाली रुद्र का घोतक है।
उरु मूल में
स्थित है।
उ दिक्पति रुद्र का घोतक है।
यक्ष जानु में स्थित है।
र्वा – स्था णु रुद्र का घोतक है जो यक्ष
गुल्फ् में स्थित है।
रु – भर्ग रुद्र का घोतक है,जो चक्ष
पादांगुलि मूल में स्थित है।
क – धाता आदित्यद का घोतक है जो यक्ष पादांगुलियों के अग्र भाग में स्थित है।
मि – अर्यमा आदित्यद का घोतक है जो
वाम उरु मूल में स्थित है।
व – मित्र आदित्यद का घोतक है जो
वाम जानु में स्थित है।
ब – वरुणादित्या का बोधक है जो वाम
गुल्फा में स्थित है।
न्धा – अंशु आदित्यद का घोतक है।
वाम पादंगुलि के मुल में स्थित है।
नात् – भगादित्यअ का बोधक है।
वाम पैर की अंगुलियों के अग्रभाग में स्थित है।
मृ – विवस्व्न (सुर्य) का घोतक है जो दक्ष पार्श्वि
में स्थित है।
र्त्यो् – दन्दाददित्य् का बोधक है।
वाम पार्श्वि भाग में स्थित है।
मु – पूषादित्यं का बोधक है।
पृष्ठै भगा में स्थित है।
क्षी – पर्जन्य् आदित्यय का घोतक है।
नाभि स्थिल में स्थित है।
य – त्वणष्टान आदित्यध का बोधक है।
गुहय भाग में स्थित है।
मां – विष्णुय आदित्यय का घोतक है यह
शक्ति स्व्रुप दोनों भुजाओं में स्थित है।
मृ – प्रजापति का घोतक है जो कंठ भाग
में स्थित है।
तात् – अमित वषट्कार का घोतक है जो
हदय प्रदेश में स्थित है।

उपर वर्णन किये स्थानों पर उपरोक्तध देवता, वसु आदित्य आदि अपनी सम्पुर्ण शक्तियों सहित विराजत हैं। जो प्राणी श्रध्दा सहित महामृत्युजय मंत्र का पाठ करता है उसके शरीर के अंग – अंग (जहां के जो देवता या वसु अथवा आदित्यप हैं) उनकी रक्षा होती है।
मंत्रगत पदों की शक्तियाँ जिस प्रकार मंत्रा में अलग अलग वर्णो (अक्षरों) की शक्तियाँ हैं। उसी प्रकार अलग – अल पदों की भी शक्तियाँ है।

त्र्यम्‍‍बकम् – त्रैलोक्यक शक्ति का बोध कराता है जो सिर में स्थित है।
यजा सुगन्धात शक्ति का घोतक है जो ललाट में स्थित है।
महे माया शक्ति का द्योतक है जो कानों में स्थित है। सुगन्धिम् – सुगन्धि शक्ति का द्योतक है जो नासिका (नाक) में स्थित है।
पुष्टि – पुरन्दिरी शकित का द्योतक है जो मुख में स्थित है।
वर्धनम – वंशकरी शक्ति का द्योतक है जो कंठ में स्थित है।
उर्वा – ऊर्ध्देक शक्ति का द्योतक है जो ह्रदय में स्थित है।
रुक – रुक्तदवती शक्ति का द्योतक है जो नाभि में स्थित है।
मिव रुक्मावती शक्ति का बोध कराता है जो कटि भाग में स्थित है।
बन्धानात् – बर्बरी शक्ति का द्योतक है जो गुह्य भाग में स्थित है।
मृत्यो: – मन्त्र्वती शक्ति का द्योतक है जो उरुव्दंय में स्थित है।
मुक्षीय – मुक्तिकरी शक्तिक का द्योतक है जो जानुव्दओय में स्थित है।
मा – माशकिक्तत सहित महाकालेश का बोधक है जो दोंनों जंघाओ में स्थित है।
अमृतात – अमृतवती शक्तिका द्योतक है जो पैरो के तलुओं में स्थित है।

महामृत्युजय प्रयोग के लाभ

कलौकलिमल ध्वंयस सर्वपाप हरं शिवम्।
येर्चयन्ति नरा नित्यं तेपिवन्द्या यथा शिवम्।।
स्वयं यजनित चद्देव मुत्तेमा स्द्गरात्मवजै:।
मध्यचमा ये भवेद मृत्यैतरधमा साधन क्रिया।।
देव पूजा विहीनो य: स नरा नरकं व्रजेत।
यदा कथंचिद् देवार्चा विधेया श्रध्दायान्वित।।
जन्मचतारात्र्यौ रगोन्मृदत्युतच्चैरव विनाशयेत्।

अर्थ :-

कलियुग में केवल शिवजी की पूजा फल देने वाली है। समस्त पापं एवं दु:ख भय शोक आदि का हरण करने के लिए महामृत्युजय की विधि ही श्रेष्ठ है।

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शतचंडी यज्ञ

शतचंडी यज्ञ

माँ दुर्गा को शक्ति की देवी कहा जाता है। दुर्गा जी को प्रसन्न करने के लिए जिस यज्ञ विधि को पूर्ण किया जाता है उसे शतचण्डी यज्ञ बोला जाता है। शतचण्डी यज्ञ नवचंडी यज्ञ को सनातन धर्म में बेहद शक्तिशाली वर्णित किया गया है। इस यज्ञ से बिगड़े हुए ग्रहों की स्थिति को सही किया जा सकता है और सौभाग्य इस विधि के बाद आपका साथ देने लगता है। इस यज्ञ के बाद मनुष्य खुद को एक आनंदित वातावरण में महसूस कर सकता है। वेदों में इसकी महिमा के बारे में यहाँ तक बोला है कि शतचण्डी यज्ञ सतत चंडी यज्ञ के बाद आपके दुश्मन आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं। इस यज्ञ को गणेशजी, भगवान शिव, नव ग्रह, और नव दुर्गा (देवी) को समर्पित करने से मनुष्य जीवन धन्य होता है।

शतचण्डी यज्ञ की महिमा
शतचण्डी यज्ञ यज्ञ विद्वान ब्राह्मण द्वारा किया जाता है क्योंकि इसमें 700 श्लोकों का पाठ किया जाता है जो एक निपुण ब्राह्मण ही कर सकता है। शतचण्डी यज्ञ नव चंडी यज्ञ एक असाधारण, बेहद शक्तिशाली और बड़ा यज्ञ है जिससे देवी माँ की अपार कृपा होती है। सनातन इतिहास में कई जगह ऐसा आता है कि पुराने समय में देवता और राक्षस लोग इस यज्ञ का प्रयोग ताकत और ऊर्जावान होने के लिए निरंतर प्रयोग करते थे। शतचण्डी पाठ महायज्ञ को करने वाला ब्राह्मण विद्वान होना चाहिए जो पाठ का शुद्ध उच्चारण कर सके जिससे लाभ की प्राप्ति हो। अगर पाठ का अशुद्ध उच्चारण हुआ तो तत्काल हानि की प्राप्ति होती है।

शतचंडी यज्ञ की कथा

अत्याचार से सकल चराचर जगत में त्राहि त्राहि मच रही थी, तभी ब्रम्हा विष्णु महेश की उपासना से महा शक्ति के रूप में जगत जननी माँ दुर्गा जी प्रकट हुर्इ, और माँ दुर्गा जी इस उपासना से प्रसन्न हुर्इ और देवताओं से वरदान मांगने को कहा। तभी देवताओं ने राक्षसों से पृथ्वी को भय मुक्त कराने के लिए माँ दुर्गा जी से आग्रह किया। माँ ने महाकाली के रूप में राक्षसों का संहार किया जिसका वर्णन मार्कण्डेय पुराण में श्री दुर्गा सप्तसती नामक ग्रन्थ में वर्णित है।




श्री दुर्गासप्त सती के पाठ को 108 बार करने को शतचण्डीपाठ महायज्ञ कहा जाता है, पाठ को 1000 बार करने को सहस्स्रचण्डी महायज्ञ कहा जाता है और पाठ को एक लाख बार करने पर लक्ष्यचण्डी महायज्ञ कहा जाता है।

शतचण्डी पाठ महायज्ञ करने की विधि
शतचण्डी पाठ महायज्ञ के सर्वतोभद्रमण्डल, षोडसमात्रिकामण्डल, नवग्रहमण्डल, वास्तुमण्डल, क्षेत्रपालमण्डल, पंचांगमण्डल आदि इन मण्डलों पर देवी देवताओं का ध्यान, आवाहन, पूजन करके पाठ सम्पन्न कराया जाता है।
यज्ञ करने के लिये सबसे पहले हवन कुंड का पंचभूत संक्कार किया जाता है इसके लिये कुश के अग्रभाग से वेदी को साफ किया जाता है |
उसके बाद गाय के गोबर व स्वच्छ जल से कुंड का लेपन किया जाता है।
तत्पश्चात वेदी के मध्य बायें से तीन खड़ी रेखायें दक्षिण से उत्तर की ओर अलग-अलग खिंचें।
फिर रेखाओं के क्रमानुसार अनामिका व अंगूठे से कुछ मिट्टी हवन कुंड से बाहर फेंकें उसके बाद दाहिने हाथ से शुद्ध जल वेदी में छिड़कें।
इस प्रकार पंचभूत संस्कार करने के बाद आगे की क्रिया शुरु करते हुए अग्नि प्रज्जवलित कर अग्निदेव का पूजन करें।
इसके बाद भगवान गणेश सहित अन्य ईष्ट देवों की पूजा करते हुए मां दूर्गा की पूजा शुरु करें


शतचण्डी पाठ से पहले यह करे
संकल्प शापविमोचन कवच अर्गला कीलक एवं न्यास नर्वाण मंत्र जप एवं पाठ के अंत में न्यास नवार्ण मंत्र जप देवी सूक्तम त्रयरहस्य सिद्धकुंजिका स्त्रोत क्षमा प्रर्थना का पाठ करने से पाठ की पूर्ति होती है। यह आदि शक्ति जगत जननी मा जगदम्बा की उपासना में विशेष प्रभावशाली होता है।

शतचण्डी पाठ महायज्ञ से लाभ

यह पाठ मनुष्य के जीवन में विशेष परिस्थिति में जैसे शत्रु पर विजय, मनोवांछित नौकरी की प्राप्ति, नौकरी में प्रमोशन, व्यापार में वृद्धि, परिवार में कलह क्लेश से मुक्ति एवं विभिन्न प्रकार की परेशानियों से मुक्ति आदि पाने के लिए कराया जाता है।

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