उत्तराखंड स्थित पंच केदार को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है, केदारनाथ के अलावा यहां चार और केदार हैं जिनका धार्मिक महत्व केदारनाथ के बराबर है।
विश्व में उत्तराखण्ड को एक विशेष स्थान प्राप्त है। इसकी हरियाली भूमि को देवताओं की पवित्र भूमि का कहा जाता है। यहां विभिन्न रूप में हमारे अराध्य भगवान्, देवी देवताओं के स्थान, मंदिर स्थापित हैं। अपनी इन्हीं अप्रतिम विशेषताओं के चलते उत्तराखंड की भूमि एक तरह से हिन्दू संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती प्रतीत होती है। यहां गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ जैसे कई सिद्ध तीर्थ स्थल हैं। देश-विदेश में भगवान शिव के अनेकों मंदिर हैं परन्तु उत्तराखंड स्थित पंच केदार को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। शास्त्रों में उत्तराखंड स्थित केदारनाथ धाम का बड़ा ही महात्म्य बताया गया है। केदारनाथ के अलावा यहां चार और केदार हैं जिनका धार्मिक महत्व केदारनाथ के बराबर है, हालांकि यहां हर कोई आसानी से नहीं जा पाता पर जो जाता है वह स्वयं ही शिवमय हो जाता है। इन सभी धामों के दर्शन से व्यक्ति की कामना पूर्ण होती है। इन स्थानों में तुंगनाथ के महादेव, रूद्रनाथ, श्रीमध्यमहेश्वर एवं कल्पेश्वर प्रमुख हैं। भगवान शिव के ये चार स्थान केदारनाथ के ही भाग हैं।
शिवपुराण के अनुसार महाभारत के युद्ध के बाद पांडव अपने कुल-परिवार और सगोत्र बंधु-बाँधवों के वध के पाप का प्रायश्चित करने के लिए यहाँ तप करने आये थे
शिवपुराण के अनुसार महाभारत के युद्ध के बाद पांडव अपने कुल-परिवार और सगोत्र बंधु-बाँधवों के वध के पाप का प्रायश्चित करने के लिए यहाँ तप करने आये थे। यह आज्ञा उन्हें वेदव्यास ने दी थी। पांडव स्वगोत्र-हत्या के दोषी थे। इसलिए भगवान शिव उनको दर्शन नहीं देना चाहते थे। भगवान शिव ज्यों ही महिष (भैंसे) का रूप धारण कर पृथ्वी में समाने लगे, पांडवों ने उन्हें पहचान लिया। महाबली भीम ने उनको धरती में आधा समाया हुआ पकड़ लिया। शिव ने प्रसन्न होकर पांडवों को दर्शन दिये और पांडव गोत्रहत के पाप से मुक्त हो गये। उस दिन से महादेव शिव पिछले हिस्से से शिलारूप में केदारनाथ में विद्यमान हैं। उनका अगला हिस्सा जो पृथ्वी में समा गया था, वह नेपाल में प्रकट हुआ, जो पशुपतिनाथ के नाम से प्रसिद्ध है। इसी प्रकार उनकी बाहु तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मदमहेश्वर में और जटाएँ कल्पेश्वर में प्रकट हुईं। दुर्लभ भगवान शिव के पंच केदारों के बारे में कुछ इस प्रकार से जाना जा सकता है,
केदारनाथ मुख्य केदारपीठ है। इसे पंच केदार में से प्रथम कहा जाता है। पुराणों के अनुसार, महाभारत का युद्ध खत्म होने पर अपने ही कुल के लोगों का वध करने के पापों का प्रायश्चित करने के लिए वेदव्यास जी की आज्ञा से पांडवों नेयहीं पर भगवान शिव की उपासना की थी। यहाँ पर महिषरूपधारी भगवान शिव का पृष्ठभाग यहा शिलारूप में स्थित है।
1. केदारनाथ-
गिरिराज हिमालय की केदार नामक चोटी पर अवस्थित है देश के बारह ज्योतिर्लिंगों में सर्वोच्च केदारनाथ धाम। कहते हैं कि समुद्रतल से 11746 फीट की ऊंचाई पर केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के प्राचीन मंदिर का निर्माण पांडवों ने कराया था। पुराणों के अनुसार केदार महिष अर्थात् भैंसे का पिछला अंग (भाग) है। मंदिर की ऊंचाई 80 फीट है, जो एक विशाल चबूतरे पर खड़ा है। केदारनाथ जाने के लिए सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन हरिद्वार है। हरिद्वार से आगे का रास्ता सड़क मार्ग से तय किया जाता है। केदारनाथ की चढ़ाई कठिन मानी जाती है, कई लोग पैदल भी जाते हैं। केदारनाथ के लिए नजदीकी एयरपोर्ट देहरादून है।
शिवपुराण के अनुसार महाभारत के युद्ध के बाद पांडव अपने कुल-परिवार और सगोत्र बंधु-बाँधवों के वध के पाप का प्रायश्चित करने के लिए यहाँ तप करने आये थे। यह आज्ञा उन्हें वेदव्यास ने दी थी। पांडव स्वगोत्र-हत्या के दोषी थे। इसलिए भगवान शिव उनको दर्शन नहीं देना चाहते थे। भगवान शिव ज्यों ही महिष (भैंसे) का रूप धारण कर पृथ्वी में समाने लगे, पांडवों ने उन्हें पहचान लिया। महाबली भीम ने उनको धरती में आधा समाया हुआ पकड़ लिया। शिव ने प्रसन्न होकर पांडवों को दर्शन दिये और पांडव गोत्रहत के पाप से मुक्त हो गये। उस दिन से महादेव शिव पिछले हिस्से से शिलारूप में केदारनाथ में विद्यमान हैं। उनका अगला हिस्सा जो पृथ्वी में समा गया था, वह नेपाल में प्रकट हुआ, जो पशुपतिनाथ के नाम से प्रसिद्ध है। इसी प्रकार उनकी बाहु तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मदमहेश्वर में और जटाएँ कल्पेश्वर में प्रकट हुईं।
गिरिराज हिमालय की केदार नामक चोटी पर अवस्थित है देश के बारह ज्योतिर्लिंगों में सर्वोच्च केदारनाथ धाम। कहते हैं कि समुद्रतल से 11746 फीट की ऊंचाई पर केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के प्राचीन मंदिर का निर्माण पांडवों ने कराया था। पुराणों के अनुसार केदार महिष अर्थात् भैंसे का पिछला अंग (भाग) है। मंदिर की ऊंचाई 80 फीट है, जो एक विशाल चबूतरे पर खड़ा है।
2. मध्यमेश्वर( मनमहेश्वर)-
चौखंभा शिखर की तलहटी में 3289 मीटर की ऊंचाई स्थित मद्महेश्वर मंदिर में भगवान शिव की पूजा नाभि लिंगम् के रूप में की जाती है। पौराणिक कथा के अनुसार नैसर्गिक सुंदरता के कारण ही शिव-पार्वती ने मधुचंद्र रात्रि यहीं मनाई थी। मान्यता के अनुसार यहां का जल इतना पवित्र है कि इसकी कुछ बूंदें ही मोक्ष के लिए पर्याप्त मानी जाती हैं। मध्यमेश्वर मंदिर जाने के लिए सबसे अच्छा समय गर्मी का माना जाता है। मुख्यत: यहां की यात्रा मई से अक्टूबर के बीच की जाती है।
3. तुंगनाथ-
इसे पंच केदार का तीसरा माना जाता हैं। केदारनाथ के बद्रीनाथ जाते समय रास्ते में यह क्षेत्र पड़ता है। यहां पर भगवान शिव की भुजा शिला रूप में स्थित है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए स्वयं पांडवों ने करवाया था। चंद्रशिला चोटी के नीचे काले पत्थरों से निर्मित यह मंदिर हिमालय के रमणीक स्थलों में सबसे अनुपम है। तुंगनाथ शिखर की चढ़ाई उत्तराखंड की यात्रा की सबसे ऊंची चढ़ाई मानी जाती है। तुंगनाथ मंदिर सबसे अधिक समुद्रतल से 3680 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।
4. रुद्रनाथ-
यह पंच केदार में चौथे हैं। यहां पर महिषरूपधारी भगवान शिव का मुख स्थित हैं। तुंगनाथ से रुद्रनाथ-शिखर दिखाई देता है पर यह एक गुफा में स्थित होने के कारण यहां पहुंचने का मार्ग बेहद दुर्गम है। यहां पंहुचने का एक रास्ता हेलंग (कुम्हारचट्टी) से भी होकर जाता है, यह मंदिर समुद्रतल से 2286 मीटर की ऊंचाई पर एक गुफा में स्थित है, जिसमें भगवान शिव की मुखाकृति की पूजा होती है। रुद्रनाथ के लिए एक रास्ता उर्गम घाटी के दमुक गांव से गुजरता है। लेकिन, बेहद दुर्गम होने के कारण श्रद्धालुओं को यहां पहुंचने में दो दिन लग जाते हैं। इसलिए वे गोपेश्वर के निकट सगर गांव होकर ही यहां जाना पसंद करते हैं।
5. कल्पेश्वर-
यह पंच केदार का पांचवा क्षेत्र कहा जाता है। यहां पर महिषरूपधारी भगवान शिव की जटाओं की पूजा की जाती है। अलखनन्दा पुल से 6 मील पार जाने पर यह स्थान आता है। इस स्थान को उसगम के नाम से भी जाना जाता है। यहां के गर्भगृह का रास्ता एक प्राकृतिक गुफा से होकर जाता है।। कहते हैं कि इस स्थल पर दुर्वासा ऋषि ने कल्पवृक्ष के नीचे घोर तपस्या की थी। तभी से यह स्थान कल्पेश्वर या कल्पनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। श्रद्धालु 2134 मीटर की ऊंचाई पर स्थित कल्पेश्वर मंदिर तक 10 किमी की पैदल दूरी तय कर उसके गर्भगृह में भगवान शिव की जटा जैसी प्रतीत होने वाली चट्टान तक पहुंचते हैं। गर्भगृह का रास्ता एक प्राकृतिक गुफा से होकर है।
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